Thursday, May 26, 2011
कभी यहाँ भी एक बस्ती बसती थी....!!
कल जो बस्ती गिराई गई उस बस्ती में मेरा कोई नहीं था|
औरतें बच्चें बूढ़े और कई लोग जिनके सर पर इस झुलसती धुप के सोले गिर रहे थे उन मेसे मेरा कोई नहीं था।
स्कूल जो कभी कच्चा-पक्का था,जो बनते बनते इक मोल बनकर कई बच्चों का जीवन झुलसा गया उनमे से मेरा कोई नहीं था । में तो कोंनवेंट स्कूल मे पढ़ा था |
उन स्कुल में,मैं या मेरे घर से कोई कभी पढने न गया है और न ही जायेगा क्या पता उनका स्टान्ड्रड देख हम लोग लज्जा जायेंगे|
उस ओर जिस ईमारत की नीव खोदते खोदते अपनी कबर खोद खुद दफ़न हो गया उन मजुरो में मेरा कोई नहीं था मैं तो अपने आलिशान बंगले मे ऐ.सी.ओन कर के आराम से सोता हुं |
मेरी कोई दुकान कभी नहीं टूटी , मेरा कोई घर कभी नहीं टुटा मैं तो बस दूर से दुसरो के घर को टूटते देखता रहा और देखता रहता हुं।
ये सब ख्याल मेरे दिमाग मे चल रहे थे तभी कहीं अचानक से मेरा दिल जोर से धड़का जैसे मुझसे बोला तू क्यूँ बेकार का परेशान होता है इन सब मैं कहाँ कोई तेरा था जो इतना मायूस होता है|
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truth is truth...yeha aksar aisa he hota hai ,jaltai hai chirag diyou mein roshnee kernai kai liyai per jeha tel he na ho tou diya kaisai jalai .
ReplyDeleteThanks Dilip for this eye-opener without being "preachy". It reminds me of the famous world war II poem, "They came for the Jews & I didn't speak up because I was not a Jew ... then they came for me and there was no one to speak for me!" Keep up the good work.
ReplyDeleteFrancis Parmar, SJ
Just because I think this is not happening to me, so I do not care for suffering of others. Dilip, let's invite people to tell about their experience when someone approached them to extend support without selfish motive, and how it rescued... them from misery. Meaning if we can acknowledge the empathy different people have shown to us, we might be able to empathise with others around us. Life might become better for all of us!
ReplyDeleteThank you bharti ji And krina mem
ReplyDeleteThank You Father Francis Parmar, SJ for your kind words, it gave me a lot of isnpiration ... pls guide me through out my writing carrier....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteનોકરી કરતો ત્યાં મોટા સાહેબ કહેતા,"સવજી... ફટી હુઈ સાડી કૌન દેખના ચાહેગા?" અત્યારે તો રંગીન કાચવાળી ઇમારતોનો મોહ વધી પડ્યો છે. રંગીન લાંબી નોટો પણ લોભાવે છે ત્યાં રંગ ઉતરી ગયેલી સાડીઓ, ઘર વગેરે કોનાથી સહન થાય?
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