मुख्य आलेख..!:


Thursday, April 14, 2011

आखरी ख़त...



आज का आखरी ख़त सोचा लिख ही दूँ कल फिर ये सुबह मिले न मिले,

गरीबी ,भूख , भ्रष्टाचार से दबे देश का दुःख देख लगता है की कहीं ये मुझे अपने आप से ही बागी न कर दे| यहाँ हर रोज कोई न कोई जुलम की छाहं में दम तोड़ता है ,हर रोज यहाँ न जाने कितने निर्दोषों का लहू सडको पर पानी की तरह बहता है| इन घट्नाओं को देख सदा डर लगा रहता है की कहीं मेरे विचार मुझ से ही बगावत न कर दे|
न जाने कितनी चूड़ियाँ टूटती है इस देश की नंगी सडको पर न जाने कितने हाथो में महेंदी कभी रंग लाती ही नहीं|

आये दिन अखबारों मे दिख जातें हैं दबी,कुचली,लटकी लाशो के फोटो, इन फोटो से किसी का दिल पसिजता हो की न हो लेकिन मेरा दिल विचलित हो जाता है और ये डर लगता है की कहीं मेरा दिल धड़कना ही न छोड़ दे |
हर रोज नसे में झुलसती है कई युवको की जिंदगीयां कही ये झुलसन मेरे देश के नौजवानों को नसेड़ी ही न कर दे ?

हर सुबह होते ही किसी न किसी का कोई न कोई द्वार सुना हो जाता है हर आंगन मुझे सिसकता दिखाई देता है, क्या करूँ ? क्या करूँगा ? यही सोच हर दिन बस चुपके से मरता रहता हुं | क्या यही मेरा फर्ज है ? क्या सब कुछ देख चुपचाप सहन करना ही मेरे फर्ज की ललकार है? मैं खुद किसी का हमराह हुं या गुमराह हुं यही तय नहीं कर पाया तो अब इस देश को क्या रस्ता दिखाऊंगा ?

इसी लिए ऐ देश सोचा आज तुझे आखरी खत लिख ही दूँ शायद कल मैं भी भ्रष्ट हो ही जाऊं ?आज दिल दहलता है तो टकरा जाऊं हर जुलम की तलवार से कल कहीं मेरा खून ठंडा न पड जाए ? ऐ वतन तेरी सन्दली बाँहों की कसम अगर इस जिंदगी मे अपने दम पर जिंदा लौट आया तो फिर एक नया भारत जरूर बसाऊंगा| फिल हाल तो यही सोच रहा हुं इस आखरी ख़त को किसे भेजुं , खुद ही पढुं, या फिर जला कर इस की राख खुद ही पी जाऊं |

जाते जाते:
मैं कोशिश करना चाह रहा था कि गिरते हुये इक पेड को रोकुं, कमबख्त जब तक जेह्न मे ये विचार आया तब तक लोग उसे पहुंचा चुके थे कारखाने में।