Friday, December 24, 2010
माँ तरकारी बना रही है…
कांपते हुए हाथ, फटे हुए पन्ने , मरते हुए जजबात, हिलती हुई कलम लिए, उम्र अपनी अब कट रही है खुद को साबित करने में, कौन समझेगा मेरी बेबसी का मतलब, निकला था पत्रकार बनने दलाल बन कर रहगया|
चलिए छोडिये अब इन बेकार की बातों को, आइये आज कुछ समय निकाल कर मेरे साथ,आप को बनते भारत की तस्वीर दिखता हूं...
रात का वक्त है, बहोत ही खामोश सन्नाटा है, कोई साया,सर्गोशी और आहट नहीं है| बस एक मकान की ओर से धीमी सी रोशनी टिमटिमा रही है| फटे हुए खस्ताहाल टाट के पर्दों से चाँद की मनभावन किरणे एक घर में हौले से झांक रही है| छोटे से इस घर में हजारों किस्म के धुंए के बीच जलता, सुलगता हुआ एक छोटा सा परिवार ‘खुशहाल’ दिखाई दे रहा है| कई वर्षो के लगातार इन्तजार के बाद आज इनके घर में चूल्हा जल रहा है, आज इनके घर में ‘तरकारी’ प़क रही है| घर से बहार की ओर सीना ताने भागता हुआ धुआं भी आज अपने आप पर इठला रहा है| आज तरकारी की महक से मुरझाये चेहरोवाले बच्चों की नाक तरकारी की महक से लप-लपा रही है| शायद ये आज गर्व से कह या सोच रहे हैं “अमीरों के घर में तो रोज बनते है पकवान आज हमारी माँ भी तरकारी बना रही है"| इन मासूमों को क्या मालूम आज इनका पिता अपने आप को बेच आया है। बच्चों के पेट की आग मे पत्नी का मंगलसूत्र झोंक आया है। चलिये जाने भी दीजिये इन बोरिंग बातों को आगे चलते है.....
कहीं से आ रही है आरती की आवाजें तो कहीं नेताजी पार्क में चिल्ला-चिल्ला "गरीबी हटाओ"का नारा लगा रहे हैं| कहीं मल्टीप्लेक्सों में लम्बी लाइने लगी है तो कहीं बाइक और मोटर फर्राटे से भागे जा रही है,हर कोई एक अनजानी सी अंधी दौड में शामिल है,पता नहीं कहां जाना है,कब तक ऐसे ही भागते भागते जीवन बिताना है? इन सब भागदौड को नजरअंदाज कर ये बच्चे खुश हैं, आज इनकी माँ ‘तरकारी’ बना रही है|
बनते भारत में लाखों लोगो को ‘सुगर’ सता रही है, वहीं इन लोगों के घर में रखे चीनी के डब्बो ने वर्षों से ‘सुगर’ का एक दाना तक नहीं चखा | बडे-बडे होटलों, बसों ,मेट्रो, से शहर भरा जा रहा है, बढ़ते, फलते-फूलते इसी शहर में इन्होंने खाली पेट ( खली का पेट नहीं) कई रातें गुजारी है| चीज नान, बटर नान,पालक-पनीर,पिज्जा, बर्गर को इन्होंने सिर्फ अपने ख्वाबों-ख्यालों में ही महसूस किया है, और इन नामों का आनंद सिर्फ इनके कानों ने लिया है| बाकी इन्होंने तो कई रातें रोटी के सिर्फ एक टुकडों में गुजारी है| इन सब फ़िजूल बातों का क्या मतलब, आज तो इनकी माँ ‘तरकारी’ बना रही है|
बहुत ज्यादा हो गया, आँखे बंध करिए चुपके से मेरे साथ आप भी आगे बढ़ चलिए. ..
चमचमाती हुई पानों की दुकानें, दिन-ब-दिन बनते फ्लाय-ओवर, बढ़ते हुए मोल जहाँ हर समय खरीदारों का मेला लगता है, वहीं एक अंधियारे से कोने मे झांकती चाँद की किरणे हरदिन इन मासूम से बच्चों को चिढ़ाने आती थी, आज इन बच्चों को मुस्कुराते देख वे भी खिसिया के भाग रही हैं, आज इनकी माँ ‘तरकारी’ बना रही है|
हर रोज हर समय विकसते हाई-वे के कई कोनों पर यहाँ रोज ’सतीत्व’ बिकता है, हर रोज यहाँ कुंती रोती है, रोज यहाँ सज सवंरकर निकलती है राधा किसी कृष्ण के लिए ,सुबह होते ही इनका कृष्ण बदल जाता है| हर सुबह इसी शहर में बनते बिगड़ते हैं रिश्ते, हर बेड़ पर किरदार बदल जाता है| ऐसे माडर्न कल्चर का गरीबी से जुझ रहे इस परिवार के जीवन पर कोई असर नहीं दिखाई देता, इनकी माँ तो बरसों से “थैली” के नशे मे रंगे कृष्ण को निभा रही है | ऐसी और ना जाने कितनी गर्वशील व्याधियों को भूल आज खुश है ये मासूम से फूल, क्योंकि आज इन की माँ ‘तरकारी’ बना रही है|
रोज की तरह हर सुबह की किरणे एक नयी आशा इन भूखे नंगे लोगों के लिए लाती है| क्या फर्क पड़ता है अगर गरीबी का अर्थ अब सिर्फ लाचार,बेबश गरीबों की तस्वीरों में नजर आता है|
हर वख्त मैं यही सोचता रहता हूं कि क्या यही आजादी और विकास का अर्थ है? कया यही ग्लोबलाइजेशन है? कया इसीलिए तडपी थी भगत सिंह की लाश? क्या इसीलिए गाँधी ने अपनी जान गवाई थी?
अब मुझसे लिखा नहीं जाता क्योंकि जितना मैं इन सवालों को रोशनी देने की कोशिश करता हूं उतना ही मेरा खून गर्म होता जा रहा है| कागज भी अब फटने लगा है,कलम भी अब कांपने लगी है| अब भूल जाना चाहता हूं ऐसे बुरे और टी.आर.पी. लेस खयालों को। इन सबसे मुझे क्या? क्योंकि इनकी माँ आज ‘तरकारी’ बना रही है|
जाते जाते:
विकास की इन मंद मंद लहरों को गरीबों के घर को भी छू लेने दो|
चन्द अमीरों और शहरों तक अगर यह सीमित रह जायेगा,
तो वो दिन दूर नहीं जब ’विकास’ भी गर्व से 'दलाल' कहलवायेगा ||
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Superb, Dilip. It's a prose poem that knocks at the heart. Your refrain, "क्योंकि इनकी माँ आज ‘तरकारी’ बना रही है|" is extremely powerful. As we celebrate Christmas, we are reminded of Jesus Christ who also did not have a place because his parents were poor. As we see God in Jesus, may we also see God in every child, irrespective of her/his station in life.
ReplyDeleteVery Very Gd Dilip, Really fentastic, literary and metaphoric language. And most important 'Social Concern' in this essay. you must have try to publish collection of your all essay's book.
ReplyDeleteKeep it up. And yes, never forget your Social Concern, you have capability of become PREMCHAND of Gujarat.
Thx.Bye.
JIVAN KE HAR MOD PAR APNE SAPNE KO SATH ME RAKHNA
ReplyDeleteLEKIN APNE APNE KO BHI SATH ME RAKHANA JARURU HE
मुंशी प्रेम चन्द्र ??????
ReplyDeletefantastic
ReplyDeleteThank you Father, @ Vishal Thanks a lot for your kind suggestions, i will definatly follow it rather try to follow it. thanks again.@ chandrkant ji aak ka bahot dhanywas khubsurat sayri ke liye..@ Dipak ji ye meri commnet nahi hai koi bhi kuch bhi likh shakta hai its open forum, @ dhara thanks for giving time..!
ReplyDeleteI am agreeing with Vishal Shah. Please put your thought in to book form. As always I m saying keep writing like this.
ReplyDeleteवयस्क होता गरीब बचपन…
ReplyDeleteकांधे पर झोला उठाये
बीन रहे हैं नन्हे नन्हे हाथ
दूध की खाली थैलियां
टूटा प्लास्टिक
जंग लगा लोहा
अखबार के टुकड़े
कुछ भी कचरा
नंगे पाव झपट पड़ते है
व्हिस्की की खाली बोतल पर
बूँद दो बूंद बची हुई पीकर
बच्चे! बड़े बन जाते हैं।रफतआलम
http://heetopadesh.blogspot.com/
ReplyDeletethank you hitesh for sharing good poem.. !
ReplyDeletebahut hi marmik avivyakti hai
ReplyDeleteSukriya aalaukikta ji.. !
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