Saturday, October 23, 2010
॥ अंधेरा ॥
हर बंधनों से मुक्त हो कर अपने खंडकाल में अकेला बैठा हुं ।
अखंड एकांत को संजोये अपने आप में ही छिप कर बैठा हुं ॥
शाम की ठंडी हवा का झोंका मेरे लिए रेशमी तन्हाई लाता है ।
मखमली अँधेरा मुझे अपनी बाँहों में समेट कर आँखे मींच लेता है ॥
सारी खिड़कियाँ खोल बंध दरवाजो के बिच जीना मुझे अब अच्छा लगता है,
मेरे आसपास रचा हुआ शांति का सरोवर मुझे अब अच्छा लगता है॥
अब कमल अपने आप ही खिलते है, और भवरें भी अपने गीतों को होठों पर सिले हुए,
मेरे एकांत की हौशला अफजाई करते है ॥
न जाने कौन सा अनदेखा अनजाना लुत्फ़ उठा रहा हुं अपने मन के कोने में,
होश से बेहोश होने की मजा ही कुछ और है ॥
भाव- अभाव- प्रतिभाव- प्रत्याघात- अपेक्षा-उपेक्षा- अब कुछ भी मुझे बाधित नहीं करता ।
अपनी ही आवाज से दूर हो कर अपने ही मन से मौन धारण करता जारहा हुं ॥
गाने गुनगुनाने वाले कई गीतों को अलविदा कह कर अपने आप में ही खोता चला जा रहा हुं ॥
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apne aap mein khone ka behad dilchasp andaaz.. Dilip.. bhaav behad sashakt.. emotions pooree tarah se vyakt ho rahe hain.. sirf spellings par thorha aur dhyaan den..
ReplyDeletegane gungunnane waale geeton ko alvidaa keh kar apne apa mein khone kee hi...mmat har kisee ke paas naheen hotee.. bravo!!!
Dilip tari aa khubi Amne loko Ne have khber padi rahi che.ame aam to kyarey kavitao vanchi nathi pan tara mail pachi vanchi ne khare khar khub aanand thayo. tu khub saro writer che.your this poem stol my heart.pls inform me when ever your write on your blog.
ReplyDeletewahh.... !!!
ReplyDeletegood one but achanak kavi kem bani gayo.. samjayu nahi.!!
ReplyDeleteThank you Ammie..Will Update U regularly. @ Nandini Thank You FoR Support.@ Devsi.. Achank nahi Bhai.. Lakhta lakhta Shayr bani gayo pelu Sambhlyu che ne ..GAI KAAL NO AACHOKRO SHAYR BANI GAYO..:-)
ReplyDeleterealy its nice kavita............keep it up.
ReplyDeleteसारी खिड़कियाँ खोल बंध दरवाजो के बिच जीना मुझे अब अच्छा लगता है,
ReplyDeleteमेरे आसपास रचा हुआ शांति का सरोवर मुझे अब अच्छा लगता है॥
nice
baari kholi bandh darava je jivan jivava no shaanti may aheshash.......
really nice...
હમણા તમે વિપશ્યના શિબિર કરી લાગે છે. અંધારૂ અને એકાંતનો મહિમાં વાંચ્યો એટલે અંદાજ બાંધ્યો, બાકી અંધારૂ અને એકાંતને વખાણવાનું જેવાતેવાનું ગજુ નથી. ગમ્યુ દિલીપ.
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