
कुछ दिनों पहले ही मैने भारत की एक अजायबी भरी सेवा से भारत की ही एक दुसरी अजायबीओं से भरी दुनिया देखी। भारतीय रेल की “राजधानी” से भारत की राजधानी की और जा रहा था। सुबह का वख्त था, ट्रेन मे और कुछ काम तो होता नहीं, लिहाजा जो मेरे जीवन मे बहोत कम होता है वो हुआ, मैं सुबह जल्दी उठा। प्रक्रुति के नजारे आँखों को खुब लुभा रहे थे। धीमे धीमे ट्रेन आगे बढ़ रही थी,वक्त गुजरता गया और रेल्वे ट्रेक की तरह पृकृति के नजारे आँखों से ओझल होने लगे थे। ट्रेन के नीले कांच के अन्दर से रेल्वे ट्रेक के किनारों की एक नई दुनिया की झांकी झांक रही थी। वो कुछ ऐसी दुनिया थी जिसे देख कर मैं हैरान हो गया।
सुबह उठते ही बाथरूम का दरवाजा खोलने की आदत शायद सबको है। लेकिन रेल्वे के किनारे बसे लोगो की दुनिया मे शायद ये नसीब नहीं है। खुला आसमान ही उनका बाथरूम है और रेलवे ट्रेक ही उनकी दिनचर्या सुरु करने का स्थान। एक दिन अगर घर मे पानी नहीं आता तो मैं व्याकुल हो जाता हूँ,लेकिन इन्हें देख कर ये प्रश्न हुआ की ये लोग पानी कहा से लाते होंगे ? सोने के लिए मुलायम गद्दे हमेशा मेरा इंतजार करते है जिनके बिना मुझे कभी नींद नहीं आती, वोही एक छोटे से मासूम को रेलवे ट्रेक के कंकडो पर सोते देख मुझे सारे सुख याद आने लगे। सोने के लिए पिन-ड्रोप सायलंस की आवश्यक्ता शायद मुझे हमेशा रहती है। लेकिन एक बुजुर्ग को रेल्वे से एक दम सटके अपनी चारपाई डाल कर एक दम शोर-शराबे के बीच आराम से सोते मैंने देखा। २० बाय २० का कमरा भी मुझे हमेशा छोटा लगता था, लेकीन १० बाय १० के कमरे मे कई लोगो को रेल्वे के किनारे आराम से रहते देखा। १० मिनिट भी चाय मिलने मे देरी हो जाय तो घर मे मैंने चिल्लाते हुए लोगो को देखा है। लेकिन रेल के इस किनारे कईओ की सुबह बिना चाय के होती मैंने देखी। अलार्म से हमेशा नींद को त्यागने वाला मै ये सोच कर दंग रह गया के रेल्वे के ईन्जन की सिटी न जाने कितनो का एलार्म है। कितनो की सुबह सिर्फ उसकी एक आवाज से होती है।
मुझे सुबह होते ही अखबार और देश की चिंता सताने लगती है लेकीन पहली बार रेलवे के किनार लोगो को सुबह उठ कर सिर्फ खाना कहाँ से आएगा ऐसी चिंता करते देखा। लोग जितना जल्दी हो उतना जल्दी इन रेलट्रेक वाले अपने घरो को छोडना चाहते थे,वंही मेट्रो के किनारे हजारो रुपियो का इत्तर लगाये लड़के लडकियों को घंटो बतियाते भी मैंने ही देखा है.!
ऐ.सी कोच मे बैठ कर ठंडी का एहसास और आनंद लेते मैंने उसी कोच के बाहर गर्मी मैं झुलसते लोगो को देखा है ! न जाने मुझे क्या हो गया है जब से मैंने इस रेलवे ट्रेक को देखा है। जैसे रेलके दो ट्रेक आपस मैं कभी नहीं मिलते वैसे मेट्रो और रेल्वे ट्रेक की आसपास की संस्कृति भी शायद आपस मैं कभी नहीं मिल पाएगी...! न जाने मुझे क्या हो गया है जब से मैंने रेलवे ट्रेक को देखा है.!